बुनियाद


जो पूर्व थे आरब्ध में

वे इतिहास हो गए हैं।

दो गज तक भीतर

अब दफन हो गए हैं।

जो बीज पूर्वजों ने थे सींचे 

बढ़कर अब जड़ हो गए हैं।

और वे ओझल होकर अब 

यथार्थ को भी सींच रहे हैं।

पर जड़ों ने न कभी किया मान

न ही वे बताते–फिरते पहचान।

क्यूंकि वे जानते है भली भांति

ये जो आज है वे कल होंगे।

आज जो लहलहा रहे हैं ऊपर 

कल जमींदोज भी होंगे।

और ये जो अंकुर पड़े है ऊपर

वे और भी भीतर जाएंगे।

और ऊपर फल–फूल लिए

फिर से नए वृक्ष मुस्कुराएंगे।

अपनी जड़ों का हम भी 

आशीष सदा पाएंगे।

उनके त्याग और संघर्षो को

कभी न हम भुलाएंगे।

अंत में उनकी तरह

हम भी जड़ हो जाएंगे।

रोते हुए मर्द



आंसू सूखे, तो निकलते नहीं
रोते हुए मर्द
सुने हैं, देखें तो नहीं।

दु:खों से, भरा है मन
सूक्ष्म है उनका रूदन
आंसू सूखे, तो निकलते नहीं
रोते हुए मर्द
सुने हैं, देखें तो नहीं।

किसे जाकर घाव दिखाएं?
किसके हाथों मरहम कराएं?
यहां संवेदना का,कोई अर्थ नहीं
रोते हुए मर्द
सुने हैं, देखें तो नहीं।

सख़्त मर्द रोते नहीं
अपना दर्द जताते नहीं
इनमें सौम्यता का भाव नहीं
रोते हुए मर्द
सुने हैं, देखें तो नहीं।

तलाश


फिरते हैं चमन में खुशबू तलाशते
नजानें वो कौन सी बहारों में होगी।
दिखती है जितनी आसान ज़िंदगी
उनके बगैर फिर गवारा न होगी।

गुज़र रहा है वक्त उनकी तलाश में
बीत रही हर घड़ी मौसम बहार की।
अंधेरों में, कहां आसां हैं? जिंदगी
आने से उनके ये रोशन तो होगी।

जीवन है इक खेल


स्टेडियम में (समाज में)
दर्शकगण (आपके करीबी)
आनंद ले रहे है,
तालियां बजा रहे है
और उत्सुक होकर
प्रतीक्षा कर रहे हैं
खिलाड़ी के (आपके)
खेल में (जीवन में)
प्रदर्शन (गिरने-संभलने) का।

मैं नही हूं वो


मैं नहीं हूं वो जिसे देखा था तुमने
जिसने भी देखा पिंजरा देखा
भीतर पंछी को देख न पाया कोई।

मैं नही हूं वो जिस से बतियाया तुमने
जो भी बतियाया पिंजरे से बतियाया
भीतर पंछी से बतियाया न कोई।

मैं नहीं हूं वो जिसे छुआ था तुमने
जिसने भी छुआ बस पिंजरा छुआ
भीतर पंछी को छु न पाया कोई।

मैं नही हूं वो जिसे पाया था तुमने
जिसने भी पाया बस पिंजरा पाया
भीतर पंछी को पा न पाया कोई।

इक तेरा ही आसरा।


जिंदगी की कश्ती को
न मिला किनारा,
इक तू ही है बस
इक तेरा ही आसरा।

चले आओ इस डगर
हाथ थाम लो जरा,
मुझे तो है इंतेजार
इक तेरा ही आसरा।

बिखर न जाऊं कहीं
समेट लो ज़रा,
उदास मन को मेरे
इक तेरा ही आसरा।

गमों की धूप में रहा
सुकुन की तलाश में,
इश्क की छाव में
इक तेरा ही आसरा।

बिछड़कर तुझसे
चुप हूं खामोश हूं,
बेजुबां होने से बचा
इक तेरा ही आसरा।

मिथ्या


कुछ कलुषित छींट
जो उछाले थे चंद लोगो ने।
उजली सफेद दीवार पर, तुमने
देखा भी तो क्या देखा?

रोपने को थे पुष्पित पौध
भलाई के बीज, बोने को थे।
ये जो बगलों में कांटे उग आए हैं
तुमने बोया भी तो क्या बोया?

नश्वर जीव-जगत में,
दुखद अंत है, जग मिथ्या है।
इन झंझटों में पड़कर तुमने
पाया ही तो क्या पाया?

प्रकृति का क्रोध


“प्राचीन मानव प्रकृति की भव्यता को देखकर नतमस्तक हुए, तो प्रकृति ने भी उन्हें फलने–फूलने का मौका दिया। आज आधुनिक मानव प्रकृति को बार² चुनौती दे रहें है। सड़कें, पुल, इमारतें, सुरंगे बनाकर, मशीनी तकनीकों से उसे पाट रहा है और मन–मुताबिक़ कृत्रिम रूप देने की कोशिश कर रहे हैं।
शायद इसलिए प्रकृति भी आज हमें समय² पर अपना रौद्र रूप दिखा रही है।”

आदमी


“आदमी कुछ नही भूलता
वो बस मिट्टी डालता है,
गड़े मुर्दे भी नही उखाड़ता
वो बस बर्दास्त कर जाता है,
उन लोगों को भी और
उनकी कही बातों को भी।
अगर वो ऐसा न करे, तो
उसकी और उन लोगों की
ज़िंदगी तबाह हो जाए।”

जीवन


जीवन के दो पहलू
आस और निरास।
पल–पल खुशियां
पल–पल उदास।